मुरिया विद्रोह और जननायक शूरवीर झाड़ा सिरहा

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आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता और जंगल-जमीन, पहाड़, नदी – जलप्रपातों की खूबसूरती से आच्छादित एक सुन्दर, शांत दंडकारण्य क्षेत्र है | वर्तमान परिदृश्य में बस्तर क्षेत्र कम्युनिस्ट और धर्मान्तरण जैसी गतिविधियों के कारण आये दिन समाचार के प्रथम पृष्ट में सुर्खियाँ बनाती नज़र आती है | इन ज्वलंत समस्याओं के बावजूद क्षेत्र के प्रकृति पूजक आदिवासी समुदाय अपने प्रकृति और समाज के रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध रहते हैं |

यूँ तो बस्तर क्षेत्र का इतिहास अति वृहद् है तथा गहनता लिए हुए है | अंग्रेजो से लोहा लेना हो या निरंकुश राजतन्त्र के प्रति विरोध करना, बस्तर क्षेत्र जितनी खूबसूरत है उतनी खुनी इतिहास को भी समय चक्र में समेट कर रखी हुयी है | हल्बा विद्रोह से लेकर भूमकाल तक बस्तर के अनेकों शूरवीरों ने अपनी माटी के लिए खून बहाया है | इन्ही शूरवीरों की कहानियों में से आज वीर झाड़ा सिरहा की शानदार कहानी पर प्रकाश डालते हैं जिनके विद्रोह को “मुरिया विद्रोह” अथवा “लाल दिवस” के रूप में जाना जाता है | इससे पहले झाड़ा सिरहा की संक्षिप्त जीवनी पर एक नज़र डालते हैं |

झाड़ा सिरहा – संक्षिप्त जीवनी

आदिवासी जननायक झाड़ा सिरहा का जन्म आगरवारा परगना के मांझी और बड़े आरापुर गाँव के पुजारी के यहाँ हुआ था | वर्तमान में जिला मुख्यालय जगदलपुर से बड़े आरापुर की दुरी लगभग 24 किलोमीटर है जो कि जगदलपुर से गीदम पहुँच मार्ग पर स्थित है | झाड़ा सिरहा बचपन से ही अपने पिता की तरह विभिन्न प्रकार के जड़ी-बूटियों का ज्ञान रखते थे | आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में पुजारी घर के युवाओं को घर की देवी (पेन) सवार होती हैं जिनकी समय-समय पर विभिन्न प्रकार से सेवा की जाती है, ऐसे युवाओं को गाँव में “सिरहा” नाम की उपाधि दी जाती है | इसी प्रकार झाड़ा सिरहा को भी बचपन से देवी सवार होती थी एवं विभिन्न जड़ी-बूटियों की जानकारी रखने के कारण लोगों के बीमारियों का झाड़-फूँक कर ईलाज करने के कारण ही इनका नाम झाड़ा सिरहा पड़ा और लोग उन्हें जड़ी-बूटी के देवता भी कहा करते थे |

इनके पिताजी परगना के मांझी एवं गाँव के माटी पुजारी थे जो कि गाँव के समस्याओं के समाधान एवं विभिन्न विषय-वस्तु से सम्बंधित निर्णय लिया करते थे जिनका लक्षण झाड़ा सिरहा के जीवन में बचपन से अक्सर देखने को मिलता था | अपने बाबा की तरह वे भी कुशल और व्यवहारिक तथा शांतिप्रिय व्यक्तित्व के धनी थे | पिताजी के देहांत के बाद परगना के सभी समाज के प्रमुख, मांझी, सिरहा-गुनिया, पेन-पुजारी, सियान-सज्जन और परगना के लोगों ने अपने रीति-रिवाज़ एवं परंपरा के अनुसार झाड़ा सिरहा को लाल पगड़ी पहना कर मांझी पद का दायित्व सौंप दिया | आज भी बस्तर में दशहरा तिहार एवं मुरिया दरबार के आयोजन के समय समस्त मांझी लाल पगड़ी का धारण कर सम्मिलित होते हैं | अपने पिताजी की तरह धीरे-धीरे पुरे परगना में उनकी कार्य कुशलता का परचम लहराने लगा और वे क्षेत्र में प्रसिद्ध होते गए | अंग्रेजों एवं निरंकुश शासकों के न्याय एवं समकालीन शासन व्यवस्था से त्रस्त लोगों ने क्षेत्र में बड़ते प्रभाव और परगना के मांझी होने के नाते झाड़ा सिरहा को विद्रोह का प्रमुख चुना और इन्ही आदिवासी समुदाय के उलगुलान का परिणाम ही था “ मुरिया विद्रोह” |

मुरिया विद्रोह की कहानी.....
बस्तर क्षेत्र में राजतन्त्र व्यवस्था या रियासत व्यवस्था का प्रारंभ 14वीं शताब्दी में काकतीय वंश से माना जाता है | पूर्व में इस क्षेत्र में जनजातीय समाज अपने चिर-परिचित रीति-रिवाज़ के अनुसार पारंपरिक ढंग से समुदाय में निवास करते आये हैं | चलिये सीधे चलते हैं 18वीं सदी में .........

बात है सन 1876 की, इस वक़्त बस्तर रियासत एक निरंकुश शासक राजा भैरमदेव के हाथ में था | क्षेत्र में सामंतों और अंग्रेजो के अत्याचार से त्रस्त यहाँ की जनता ने विद्रोह करने का निर्णय लिया | आगे बढ़ने से पहले हम यह समझने की कोशिश करते हैं की आखिर जनता को इस जन विद्रोह की आवश्यकता क्यों पड़ी ?


  • जंगलों के उपयोग के संबंध में ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियां जिसके अंतर्गत अंग्रेजी सरकार ने वनों को आरक्षित करना शुरू कर दिया था | आदिवासियों को अपनी आजीविका के लिए जंगलों का उपयोग करने से मना कर दिया गया था |
  • वनों से अनेकों गाँवो के आदिवासी परिवारों का विस्थापन किया गया |
  • ब्रिटिश औपनिवेशक भू-राजस्व नीतियां जिसके अंतर्गत आदिवासियों के जमीनों को गैर आदिवासियों को सौंपना जिसके कारण गैर जनजातीय लोगों का आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन पर दख़ल बड़ गया तथा ब्रिटिश सरकार के द्वाराअत्यधिक मात्रा में भू-कर वसूल किया जाने लगा इससे आदिवासियों का सामाजिक एवं आर्थिक ढांचा चरमराने लगी |
  • राजा भैरमदेव की अकुशलता और निरंकुशता भी विद्रोह के जन्म लेने का कारण प्रमुखता से रहा है |
  • तत्कालीन दीवान गोपीनाथ कपड़दार की कुकर्म व निरंकुश न्याय व्यवस्था के कारण क्षेत्र में असंतोष और विद्रोह की भावना तेजी से विकसित होने लगी |
आदिवासी समाज अपने अधिकार और समानता के लिए हमेशा विद्रोह की तरफ मुखर रहा है | वे हमेशा से अपने ऊपर उत्पीड़न के विरुद्ध खड़ा होता आया है | ऐसा कहा जाता है कि असंतोष में ही विद्रोह के बीज निहित होते हैं, असंतोष ही विद्रोह या किसी क्रांति की जनक होती है | इसलिए ब्रिटिश सरकार की कुनीतियाँ, अकुशल और निरंकुश शासक तथा कुकर्मी गोपीनाथ की अत्याचारी अन्याय व्यवस्था से त्रस्त जनता ने विद्रोह को चुना और इस प्रकार से “मुरिया विद्रोह” की शुरुआत हुयी |

चलिए वापस 18वीं सदी में चलते हैं .........
जननायक झाड़ा सिरहा को अपने विद्रोह दल के लीडर चुनने के बाद परगना के प्रत्येक नार्र (गाँव) में एक तीर और आम की टहनी भेज कर गुप्त रूप से सन्देश का प्रचार-प्रसार किया गया और एक स्थान पर एकजुट होने का सन्देश दिया गया जिसमें बड़े आरापुर में लगभग 700 से 1000 की संख्या में लोग अपने पारंपरिक हथियार – पत्थरनुमा हथियार जैसे भाला,टंगिया, तीर-धनुष, गाय के हड्डी से बने हथियार आदि-इत्यादि लेकर एकत्र हुए | इसी वक़्त राजा भैरमदेव को बम्बई में प्रिंस ऑफ़ वेल्स की सलामी देने ब्रिटिश सरकार से बुलावा आया, यूँ कहें की ब्रिटिश सरकार ने राजा को मुम्बई आने हेतु आदेश जारी किया और तय किया गया की राजा को सिरोचा होते हुए सलामी के लिए ले जाया जायेगा |

ब्रिटिश सरकार की कुनीतियाँ, निरंकुश शासक भैरमदेव तथा कुकर्मी गोपीनाथ की अत्याचारी अन्याय व्यवस्था से त्रस्त जनता को जब इस बात का पता चला तो उनमे मन में डर समाने लगा और शक होने लगा की ब्रिटिश सरकार उन्हें वापस आने नहीं देगी, ऊपर से निरंकुश दीवान गोपीनाथ कपड़दार के द्वारा राजा की अनुपस्थिति में शोषण और दमन में वृद्धि की आशंका से राजा को मुंबई जाने से रोकने की रणनीति बनायीं गयी |

कार्यक्रम अनुसार जब राजा सिरोंचा की ओर प्रस्थान करने लगे तो झाड़ा सिरहा एवं विद्रोहियों ने मारेंगा के पास राजा के काफ़िले को रोक लिया और उन्हें जाने से मना किया | इसी दरमियाँ निरंकुश दीवान गोपीनाथ को राजा के साथ देख विद्रोही दल गुस्से से लाल-पिला हो गए और उस पर साथ में लाये पारंपरिक हथियारों से कपटी दीवान पर टूट पड़े किन्तु राजा के आश्रय में छिप कर वह अपने आप को बचा लिया | इसी संघर्ष के दौरान राजा ने झाड़ा सिरहा और विद्रोही दल पर गोली चलाने का आदेश दे दिया, राजा और विद्रोहियों के मध्य इस खुनी संघर्ष में 6 मुरिया आदिवासी परलोक सिदार गए और 18 आदिवासी गिरफ्तार भी किये गए जिन्हें अत्याचारी दीवान के नृशंस, निर्मम और निठुर अत्याचार से गुजरना पड़ा | विद्रोहियों के मन में कपटी दीवान के प्रति मन में इतना आक्रोश भरा था कि उन्होंने गिरफ्तार सभी साथियों को वापस ले आये | इधर राजा का काफ़िला वापस राजमहल की ओर चला गया | राजा के पीछे-पीछे पुरे विद्रोही दल राजमहल की ओर समस्या के समाधान के लिए चल पड़े | ब्रिटिश रेजिमेंट मैकजॉर्ज ने अपने लेख में राजमहल को लगभग 3000 आदिवासी मुरिया विद्रोहियों के द्वारा घेरे जाने का उल्लेख अपने लेख में किया है लेकिन उस समय के प्रत्यक्षदर्शियों (विभिन्न आलेखों के कथनानुसार) के अनुसार राजमहल में करीबन 20000 से अधिक मुरिया आदिवासियों ने राजमहल को घेर लिया था |

दिन था 02 मार्च 1876 का, झाड़ा सिरहा के नेतृत्व में मुरिया आदिवासियों ने योजना बनायीं कि राजमहल को ब्रिटिश हुकूमत और कपटी दीवान से मुक्त करने के लिए राजमहल में किसी भी प्रकार की सन्देश का आदान-प्रदान बंद किया जाये, प्रत्येक व्यक्ति जो राजमहल के अन्दर-बाहर हो रहा है उस पर कड़ी नज़र राखी जाये | राजमहल को चारो तरफ से घेरने लिया गया और यही वह वक़्त था जब विद्रोहियों ने अपने मुखिया, अपने देवता, अपने जननायक झाड़ा सिरहा के लिए एक खोली (झोपड़ी) बनाया जिसे उन्होंने उनके काम के अनुरूप नाम दिया “सिरहा चो सार”, हल्बी में सार का मतलब होता है खोली/कमरा | कालांतर में इसी सार को “सिरहासार“ नाम से प्रसिद्धी मिली | झाड़ा सिरहा और उसके साथियों ने महल को चारो तरफ से घेर रखा था, आसपास के सभी तालाबों और पानी टंकियों, घरों पर विद्रोहियों ने अपना कब्ज़ा कर रखा था | देखते – देखते राजा को बंधक बनाये 4 महीने गुजर गए |

दिकुओं का योगदान :-
हर लड़ाई में कोई न कोई पीठ में छुरा भोंकने वाला होता ही है, वैसे ही इस कहानी में भी एक ट्विस्ट आया | 4 महीने से लगातार बंधक बने रहने से कपटी-धूर्त दीवान ने राजमहल के राजगुरु गोकुलनाथ मिश्र को धोखे से अपने प्लान में शामिल कर एक माहरा जाति की महिला के पेज हांडी ( मिट्टी का बर्तन ) में सहायता पत्र भरकर नागपुर और कोटपाड़ भिजवा दिया और यहीं से इस विद्रोह के अंत की कहानी शुरू हो गयी |

सैनिकों और लड़ाकू मुरिया के मध्य भीषण युद्ध :-
अंग्रेजी शासन हमेशा से फुट डालो और शासन करो कि राजनीति करती आयी है और उनको इस वक़्त मौका भी मिल गया, सिरोंचा और जैपुर से लगभग 5000 सैनिक राजमहल की ओर रवाना हो गए | राजमहल में झाड़ा सिरहा एवं उनके लड़ाकू मुरिया साथियों के साथ सैनिकों के मध्य भीषण युद्ध प्रारंभ हो गया | चारों तरफ़ से तीर – भालों – गोलियों की बौछार होने लगी | शहर खून से रंगने लग गया | कई आदिवासी और सैनिक मारे गए और अंत में जननायक शूरवीर झाड़ा सिरहा भी प्रकृति की गोद में सो गए | इतिहास फिर से वही दोहराया गया, आदिवासी अपने मुकाम पर पहुँचते फिर से किसी दिकु ने उनके सपनों को चूर-चूर कर दिया और आदिवासियों के एक और देवपुरुष ने रण में अपना बलिदान दिया और अपने लोगों के लिए शहीद हो गए |

मुरिया दरबार की स्थापना :-
युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजी सरकार ने आदिवासी समुदाय और राजा के मध्य सामंजस्य स्थापित करने 8 मार्च 1876 को पहली बार राजमहल में सभा आयोजित किया जिसका जिम्मा दिया गया सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर मैकजॉर्ज को जिन्होंने राजा और मुरिया आदिवासियों के समस्या को सुना और पाया कि जिम्मेदार अधिकारीयों, मुंशियों ने राजा की कमजोरी का गलत फायदा उठाकर जनजातीय समाज के साथ ज्यादती किया जिन्हें तत्काल प्रभाव से कार्यमुक्त किया गया |  कपटी दीवान गोपीनाथ को भी सिरोंचा के झेल में भेज दिया गया |

प्रसिद्ध इतिहासकार सम्मानीय डा. हीरालाल शुक्ल की कृति “बस्तर का मुक्तिसंग्राम” के अंश :-

मैकजार्ज ने आदिवासियों को इस बात के लिए राजी किया कि भविष्य में जब कोई शिकायत हो तो कानून को अपने हाथ में लेने के बजाय उससे अपनी शिकायत दर्ज कराएं । मैकजार्ज ने राजा तथा उनकी आदिवासी प्रजा के बीच पुनः मेल मिलाप करवाया और राजा से कहा कि वह आदिवासियों की शिकायतों को दूर करें । उसने भी बस्तर के प्रशासन की कमजोरियों को दूर करने का संकल्प लिया । सन् 1876 की उक्त मुरिया सभा से ही स्वशासन की जांच पड़ताल हेतु मुरिया सभा आयोजित की जा रही है। जो कालान्तर में राज शाही शब्दों के कारण ही दरबार में परिवर्तित हो गई है |

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