भूमकाल दिवस - सन 1910 की आदिवासी क्रांति |

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महान भूमकाल दिवस 

देश की आजादी के 75 साल पूरे होने पर पूरे देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. अंग्रेजों के गुलामी से देश को आजादी दिलाने के लिए न जाने कितने वीर सपूतों ने अपनी जान की कुर्बानी दे दी. इन वीर सपूतों में से एक छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी जननायक वीर शहीद गुंडाधुर हैं. इन्होंने आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भूमकाल आंदोलन की शुरुआत की थी. उन्होंने अपने दहशत से अंग्रेजों को कई दिनों तक जंगलों और  गुफाओं में छुपने के लिए मजबूर कर दिया था. 




हजारों आदिवासियों के प्रेरणास्त्रोत गुंडाधुर ने बस्तर को अंग्रेजों के हुकूमत से आजादी दिलाने के लिए अपना बलिदान दे दिया.  इसलिए आज भी उन्हें बस्तर में उन्हे देवता की तरह पूजा जाता है. हर साल 10 फरवरी को भूमकाल दिवस के मौके पर उन्हें याद किया जाता है और श्रद्धांजलि दी जाती है.

एक नजर इतिहास पर 

रियासतकालीन वैभव से भरे-पूरे बस्तर का इतिहास काफी समृद्धशाली रहा है. यहां की परम्पराएं, रीति-रिवाज और संस्कृति अपने आप में खास है. देश का ऐसा कोई कोना नहीं होगा जो बस्तर की वैभव सम्पदा को नहीं जानता होगा. चालुक्य और मराठा राजवंशों के शासनकाल से लेकर अंग्रेजों के शासनकाल की दास्तान इतिहास के पन्नों में आज भी दर्ज है.


 1891 में अंग्रेज शासन ने बस्तर का प्रशासन पूरी तरह अपने हाथ में लेते हुए तत्कालीन राजा रूद्र प्रताप देव के चाचा लाल कालेन्द्र सिंह को दीवान के पद से हटाकर पंडा बैजनाथ को बस्तर का प्रशासक नियुक्त कर दिया। लोकप्रिय दीवान कालेन्द्र सिंह को पद से हटाया जाना आदिवासियों को नागवार गुजरा।


 दूसरी तरफ, पंडा बैजनाथ के बनाए गए मास्टर प्लान के मुताबिक जगदलपुर का विकास करने के दौरान आदिवासियों पर अंग्रेजों ने जमकर जुल्म ढाए। अनिवार्य शिक्षा के नाम पर आदिवासियों के बच्‍चों को जबरन स्कूल में लाया जाना, सुरक्षित जंगल के नियम के तहत आदिवासियों को उनके ही जल-जंगल-जमीन से दूर किया जाना जैसे जुल्म और विरोध करने पर बेदम पिटाई व जेल में डाल देना, अंग्रेजों की ये नीतियां आदिवासियों को नागवार गुजरी।


अंग्रेजों के खिलाफ इसी आक्रोश को आग को हवा देते हुए लाल कालेन्द्र सिंह ने मुरिया, माड़िया  और धुरवा आदिवासियों को सीधी लड़ाई के लिए तैयार किया और माड़िया जनजाति के नेता बीरसिंह बेदार और धुरवा जनजाति के नेता गुंडाधुर को विद्रोह का नेतृत्व सौंप दिया। बाहरियों के खिलाफ मूलवासियों का यही विद्रोह इतिहास में भूमकाल आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 


शहीद वीर गुंडाधूर

अमर शहीद वीर शहीद गुंडाधूर जी के बारे में अलग से विशेष लेख साझा करूंगा | आज सिर्फ भूमकाल दिवस के बारे में जानते हैं |



शहीद गुंडाधुर का जन्म बस्तर के एक छोटे से गांव नेतानार्र में धुरवा आदिवासी समुदाय में हुआ था। वह अपने समुदाय के एक साधारण मगर साहसी युवा थे, जिसमें कई अद्भुत साहसिक गुण थे। मौजूदा समय की तरह उस समय भी बस्तर खनिज संपदा से समृद्ध था जिसके कारण यह ब्रिटिश काल में अंग्रेजों का प्रमुख औपनिवेशक केंद्र बन चुका था। बस्तर में उन दिनों राजतंत्र व्यवस्था लागू थी जो कि अंग्रेजों के अधीन होकर काम करती थी। ये दोनों ही मिलकर बस्तर की जनता पर लगातार अन्याय और अत्याचार कर रहे थे। सालों से चले आ रहे इस अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का बीड़ा गुंडाधुर और उनके साथियों ने उठाया। इसके लिए सबसे पहले समुदाय में बूमकाल सभा का आयोजन किया गया। बूमकाल का अर्थ ऐसी सभा से है जिसमें समुदाय के महिला बच्चे, बूढ़े, जवान के अतिरिक्त आदिवासियों के पुरखे तक सम्मिलित होते हैं। जब यह सभा किसी भी अन्याय के खिलाफ एकजुट होती है तब बूमकाल का आगाज़ होता है।


 बेहद प्रभावशाली शख्सियत वाले गुंडाधुर ने आदिवासियों को संगठित करना शुरू कर दिया। गुंडाधूर ने इस क्रांति का प्रतीक आम की डाल पर लाल मिर्च को बांध कर तैयार किए गए ‘डारा मिरी’ को बनाया। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक क्रांति के प्रतीक के रूप में गुंडाधूर की कटार को पूरे बस्तर में घुमाया गया। जहां वह कटार जाता था जन समूह गूंडाधूर के समर्थन में जुट जाता था।


उस दौर में गुंडाधुर की अधिकतम लोगों तक ऐसी पहुंच थी कि उनके विषय में अनेक किंवदंतियां फैलने लगीं। कोई कहता कि गुंडाधुर को उड़ने की शक्ति प्राप्त है तो कोई कहता कि वह लड़ाई के समय अपने जादू से अंग्रेजों की गोलियों को पानी बना देगा। इन किंवदंतियों से इतर गुंडाधुर की जमीनी योजना-रचना ऐसी थी कि आंदोलन शुरू होने से पूर्व अंग्रेजों को इसकी कोई भनक तक नहीं लगी। 

फरवरी 1910 में पूरे बस्तर में एक साथ भूमकाल का आगाज गुंडाधुर के संगठन कौशल और पक्की योजना का ही परिणाम था। आंदोलन की शुरुआत पुलिस चौकियों और सरकारी कार्यालयों पर हमले व बाजारों की लूट के रूप में हुई। देखते ही देखते, आंदोलनकारियों ने बस्तर के प्रमुख शहर जगदलपुर को छोड़ शेष बस्तर के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया। अंग्रेज सिपाहियों और आजादी के मतवालों के बीच कई बार मुठभेड़ हुई, जिसमें तीर-धनुष और फरसा-भाला से लड़ने वाले आदिवासियों ने ब्रिटिश शासक के बंदूकधारी सिपाहियों को भागने पर मजबूर कर दिया।



जगदलपुर के लिए चली अंग्रेज सेना को रास्ते में कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा, तब जाकर वो जगदलपुर पहुंच पाई। इस बीच अंग्रेजों को आभास हो गया था कि गुंडाधुर के कुशल नेतृत्व में लड़ रहे आंदोलनकारियों से सीधे लड़कर पार पाना आसान नहीं है, इसलिए उन्होंने छल की रणनीति अपनाते हुए आदिवासियों से बातचीत का नाटक किया। अंग्रेज सेना के कप्तान ने हाथ में मिट्टी लेकर कसम खाई कि आदिवासी लड़ाई जीत गए हैं और शासन का कामकाज उनके अनुसार ही चलेगा। भोले-भाले आदिवासी कुटिल अंग्रेजों की चाल नहीं समझ पाए और मिट्टी की कसम के झांसे में आ गए।


आंदोलनकारी अलनार में एकत्रित होकर अपनी विजय का जश्न मना रहे थे तभी रात में अंग्रेजों ने उन पर अचानक हमला कर दिया। इस हमले में बहुत आदिवासी हताहत हुए। लेकिन गुंडाधुर को पकड़ना तो दूर अंग्रेज उनकी शक्ल भी नहीं देख पाए। हालांकि बाद में सोनू माझी नामक एक आंदोलनकारी लोभवश अग्रेजों से मिल गया जिस कारण गुंडाधुर के कुछ साथी पकड़ लिए गए। लेकिन तब भी अंग्रेज सरकार गुंडाधुर को नहीं पकड़ सकी। गुंडाधुर अंग्रेजों के लिए एक रहस्य ही बनकर रह गए। अंतत: अंग्रेजों को गुंडाधुर की फाइल इस टिप्पणी के साथ बंद करनी पड़ी कि ‘कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुंडाधुर कौन था।


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सुबह इक्क्सीस लाशें माटी में शहीद होने के गर्व के साथ पड़ी हुई थी। डेबरीधूर और अनेक प्रमुख क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। नगाड़ा पीट पीट कर जगदलपुर शहर और आस पास के गाँवों में डेबरीधूर के पकड़े जाने की मुनादी की गयी। उसपर कोई मुकदमा नहीं चलाया गया और कोई सुनवायी भी नहीं। नगर के बीचों-बीच इमली के पेड़ में डेबरीधूर और माड़िया माझी को लटका कर फाँसी दी गयी। नम आँखों से बस्तर की माटी ने अपने वीर सपूतों की शहादत को नमन किया और फिर आत्मसात कर लिया। बस्तर की सम्पदा लूट रहे अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए भूमकाल आंदोलन ने पूरी ब्रिाटिश सत्ता को हिलाकर रखा दिया. ऐसे में इस आंदोलन के कई प्रणेता को उल्टा फांसी पर लटका दिया गया, जिसका गवाह आज भी जगदलपुर के गोलबाजार चौक पर स्थित इमली का पेड़ है, जहां इस आंदोलन से जुड़े लोगों को मौत की सजा दे दी गई थी.


बस्तर के इस वीर क्रांतिकारी धुरवा को अंग्रेजों ने ही गुंडाधुर की उपाधि दी थी. दरअसल शहीद गुंडाधुर के विद्रोह करने के चलते ये नाम अंग्रेजों ने ही उन्हें दिया था. इतिहास के पन्नों में दर्ज शहीद गुंडाधुर का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी लोगों में मन में जिंदा है, लेकिन आज भी उनके चाहने वाले ये मांग कर रहे हैं कि शहीद गुंडाधुर को शहीदों को दर्जा मिले.


वर्तमान में बस्तर के इस माटीपुत्र को तरजीह देने के लिए राज्य सरकार खेल प्रतिभाओं को उनके नाम पर पुरस्कृत करती है. तीरंदाजी के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए खिलाड़ियों को शहीद गुंडाधुर अवार्ड से सम्मानित किया जाता है, लेकिन इसके बावजूद शहीद गुंडाधुर को जो दर्जा मिलना चाहिए, उसकी दरकार आज भी है. 


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